हितचिन्‍तक- लोकतंत्र एवं राष्‍ट्रवाद की रक्षा में। आपका हार्दिक अभिनन्‍दन है। राष्ट्रभक्ति का ज्वार न रुकता - आए जिस-जिस में हिम्मत हो

Tuesday 22 July, 2008

कांग्रेस और सपा ने लोकतंत्र को शर्मसार किया

कहावत है पुरानी आदतें जल्दी नहीं जाती। भ्रष्टाचार कांग्रेस के चरित्र में है और भ्रष्टाचार सपा की पहचान बन चुकी है। दोनों दल अपनी ही जाल फंस में फंस गए। कांग्रेस और सपा ने सत्ता के लिए लोकतंत्र को कलंकित किया। भारतीय संसद को शर्मशार किया।

गौरतलब है कि भारतीय जनता पार्टी के तीन लोकसभा सांसद सर्वश्री अशोक अरगल, फग्गन सिंह कुलस्त और महावीर भगोरा ने संसद में विश्वास-मत के दौरान एक-एक हजार रुपए के नोटों की गड्डियां उछालकर सनसनी फैला दी। भाजपा सांसदों ने कहा कि सपा नेता अमर सिंह और कांग्रेस नेता अहमद पटेल के इशारे पर सरकार के पक्ष में मतदान करने के लिए उन्हें 1-1 करोड़ टोकन के रूप में दिए गए और विश्वास मत के बाद 9-9 करोड़ रुपये देने की पेशकश की गई। तीनों सांसदों को जो रुपये की पेशकश की गई थी वह एक टीवी चैनल के कैमरे में कैद है।

थू-थू कांग्रेस-छि: छि: सपा

Sunday 20 July, 2008

गैर कांग्रेसवाद का अलख, द्विध्रुवीय राजनीति भाजपा की देन



लेखक : भरतचन्द नायक

आज जब संसद से लेकर सड़कों तक पर साम्प्रदायिकता को कुचलने और जातिवाद का मुंहतोड जवाब देने की घोषणाएं दोहराई जाती है एक विभ्रम की स्थिति बनती दिखाई देती है। हमारे स्वनाम धन्य नेता विदेशों तक में अल्पसंख्यकों के साथ बेइन्साफी होने की बातें कहकर देश को लांछित करने मे भरपूर धर्म निरपेक्षता का अहसास करते है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद हमें जोडने की कडी रही है। विदेशियों ने इसे कमजोर करके फूट डालो तथा राज करो की नीति अपनाकर भारत पर लंबे समय तक राज किया। फिर भी हमने उससे सबक नहीं लिया है। कांग्रेस और वामपंथियों ने सेकुलरवाद और साम्प्रदायिकता का जो विवाद पैदा किया है जनता की उसमें कोई रूचि नहीं रह गयी है। थामस फ्रेडमेन की पुस्तक ''द वर्ल्ड इज फ्लेट'' ने भारत में चल रहे इस वाद विवाद पर अच्छी व्याख्या दी है। थामस ने लिखा है कि भारत में अहिंसा की परंपरा हिन्दू सहिष्णुता की देन है। अमेरिका में हुई 11 सितंबर की आतंकवादी घटना ने इसका सबूत दिया है। भारत में मुसलमानों की संख्या मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान से कहीं अधिक है। लेकिन 11 सितंबर की घटना में जिस अलकायदा मुस्लिम आतंकवादी संगठन की संलग्नता है। भारत का कोई मुसलमान उससे प्रभावित अथवा संबंधित नहीं पाया गया। पन्द्रह करोड मुसलमान भारत में रहते है। उनमें पिछड़ापन भी है, उनकी अन्य समस्याएं भी है। लेकिन वे अलकायदा के रास्ते पर नहीं चले सकते। क्योंकि उनका मानस भारतीय है। हिन्दू सहिष्‍णुता वाले भारत में खुला सेकुलरवाद धरती की देन है। लोकतंत्र की हवा में वह रचा पका है। साम्प्रदायिकता और जातिवाद को कुचलने का आव्हान करने वाले भेड़िया आया पुकार पुकार कर अपनी हताशा बयान कर रहे है।

आजादी के बाद देश में अलगाववादी विचारधारा को मोड़ देकर एकता के सूत्र में बांधने के लिये समकालीन राजनीति में भारतीय जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी ने जो भी योगदान दिया है उसके सुफल को आगामी पीढियां गर्व के साथ याद करेगी। लोकतंत्र में अवसरवादी राजनीति को लंबे समय तक संरक्षण नहीं मिल सकता है। सोमनाथ से अयोध्या तक जो राष्ट्रीय एकता यात्रा निकाली गयी और राम जन्मभूमि आंदोलन चला उसने जाति पांति के विवाद को दफन कर दिया। लोगों की समझ में आया कि श्रीराम धार्मिक प्रतीक भर नहीं है। वे भारतीय लोकाचार, संस्कृति और राष्ट्रीय भावनात्मक एकता के प्रतीक है। राष्ट्रीय अवधारणा के प्रतीक है। जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी ने देश में अल्पसंख्यकवाद और सेकुलरवाद के छद्म को जिस तरह बेनकाब किया है तथा सबके लिये न्याय समान अवसर और विकास को फोकस में लाया गया है विभाजनकारी विचारों की डुग्गी पीटने वाले बेपरदा हो गये है। भारतीय जनता पार्टी की इस सफलता को देश की जनता ने सराहा है और राजनीति को दो ध्रुवीय बनाने के प्रयास में दिल खोलकर समर्थन दिया है। गठबंधन राजनीति के शिल्प को जिस तरह भाजपा ने गढ़ा है। उससे क्षेत्रीय अस्मिता का सम्मान हुआ है। इसका स्पष्ट असर यह हुआ कि उत्तर दक्षिण, पूर्व पश्चिम का दुराव समाप्त हो गया है। क्षेत्रवादी दावे अतीत के अध्याय बनकर रह गये है। भाजपा की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता के झण्डे गढ़े है। क्षेत्रीय दलों ने भारतीय जनता पार्टी के साथ राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन में शिरकत कर अपने को गौरवान्वित महसूस किया है।

जम्मू कश्मीर का भारत का अभिन्न अंग बना रहना, नागरिकों की मौलिक आजादी, संपत्ति पर मौलिक अधिकार और सहकारी खेती से मुक्ति के लिये जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। जनसंघ की स्थापना ऐसे समय हुई थी जब विदेशी विचार राजनीति पर हावी हो चुके थे। जम्मू कश्मीर में अलग निशान, अलग संविधान और प्रथक प्रधान की व्यवस्था जारी रखी जा रही थी। भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने 8 सितंबर 1951 को घोषणा पत्र जारी किया था।

पहले लोकसभा चुनाव में तीन सीटों पर विजय प्राप्त हुई। भारतीय जनसंघ ने गणतंत्र परिषद, हिन्दू महासभा, तमिलनाडू टायलर्स पार्टी, अकाली दल, कामनवील पार्टी, द्रविड कजगम, लोकसेवक संघ और निर्दलीयों को मिलाकर नेशनल डेमाक्रेटिक फ्रंट की संसद में स्थापना पर कांग्रेस को जबर्दस्त चुनौती दी गयी।

जनसंघ ने गौहत्या पर प्रतिबंध की मांग की और पूर्वी बंगाल में अल्पसंख्यकों को संरक्षण दिये जाने की मांग की। जम्मू कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के लिये 6 मार्च 1953 को दिल्ली में सत्याग्रह किया और 11 मई को डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने बिना परमिट के जम्मू मे ंप्रवेश किया। जून में श्रीनगर जेल में डॉ मुखर्जी शहीद हो गये। देश की अखण्डता के लिये जनसंघ ने दादरा मुक्ति आंदोलन चलाया। जून 1955 में जनसंघ के जगन्नाथ राव जोशी के नेतृत्व में जेल भरो आंदोलन किया। मध्यप्रदेश से गये सत्याग्रहियों में से राजाभाउ महाकाल गोवा आंदोलन में शहीद हो गये। तिब्बत को लेकर सत्याग्रह किया गया। जनसंघ लगातार चीन की विस्तारवादी साजिशों से तत्कालीन पं. नेहरू सरकार को आगाह करता रहा। 1959 में अटलबिहारी वाजपेयी ने केन्द्र सरकार से चीन विवाद पर श्वेत पत्र जारी करने का आग्रह किया था जिससे चीन की सजिशें विश्व के सामने उजागर की जा सके। आज चीन और पाकिस्तान के साथ भारत के जो विवाद चल रहे है उनके बारे में यही कहना अधिक सभी चीन होगा कि लम्हों ने खता की और सदियों ने सजा पाई।

बेरूवाडी के हस्तांतरण, कच्छ समझौता, ताशकंद समझौता का विरोध करके जनसंघ ने राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति कड़ा रूख अपनाया, लेकिन अपने संख्या बल पर गर्वित होकर कांग्रेस ने तात्कालिक लाभ को ही तरजी दी। देश में 18 वर्ष में वयस्क मताधिकार दिलाने की मांग जनसंघ ने 26 अगस्त 1968 को ही कर दी थी। आदिवासियों का मसीहा साबित करने वाली कांग्रेस के सामने जनसंघ ने बार बार ज्ञापन सौपे और भूमि सुधार करने की जरूरत रेखांकित की थी। साठ के दशक में राज्यों में जनसंघ ने संयुक्त विधायक दल सरकारों की कल्पना को साकार कर कांग्रेस के राजनैतिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया। कांग्रेस के बढते भ्रष्टाचार के खिलाफ जब देश में आवाज उठी 1973 में गुजरात में नवनिर्माण समिति के आंदोलन को जनसंघ ने शक्ति दी और संयुक्त संघर्ष मोर्चा में शामिल हो गया। तभी लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने जनसंघ को निकट से देखा परखा और कहा कि यदि जनसंघ साम्प्रदायिक फासिस्ट है तो लोकनायक भी फासिस्ट है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सत्ता खिसकती देखकर आपातकाल थोप दिया। तब देश काल कोठारी में बदल गया। जनसंघ ने उग्र तेवरों के साथ इंदिरा हटाओं देश बचाओ आंदोलन का झण्डा उठाया बाद में राष्ट्रहित में जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया। कांग्रेस का पराभव होने के बाद केन्द्र में जो जनता पार्टी सरकार बनी उसमें अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवानी मंत्री बनाये गये। परंतु जनता पार्टी के घटक दलों की महत्वाकांक्षाएं टकराई। उन्होंने दोहरी सदस्यता का प्रश्न उठाकर जनसंघ को बाहर का रास्ता दिखा दिया। तभी कुछ राजनैतिक दलों ने इसे जनसंघ का राजनैतिक अवसान घोषित कर दिया। लेकिन जनता पार्टी संसदीय दल की बैठक में अटलबिहारी वाजपेयी ने दो टूक शब्दों में घोषणा की कि उन्हें बाहर जाना कबूल है राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ मातृ संस्था है। उससे संबंध अटल रहेंगे।

भारतीय जनता पार्टी का उदय हुआ 6 अप्रेल 1980 को दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की अध्यक्षता स्वीकार करते हुए अटलबिहारी वाजपेयी ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की हुंकार भरी। भारतीय जनता पार्टी ने अपनी पंच निष्ठा में गांधीवादी समाजवाद का समावेश कर लिया। लेकिन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी सिमट कर दो सीटों पर रह गयी। मई 1984 में लालकृष्ण आडवानी ने पार्टी का अध्यक्ष पद स्वीकार किया। समग्र एकात्म मानववाद ग्राम राज्य अभियान को रचनात्मक गति दी गयी। लालकृष्ण आडवानी ने स्वर्ण जयंती यात्रा, स्वराज यात्रा, भारत उदय यात्राएं करके देश को पग पग नापा। नब्बे के दशक में कश्मीर से कन्याकुमारी तक डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने एकात्मता यात्रा करके राष्ट्रीय सुरक्षा और अखण्डता का शंखनाद किया।

1990 में हुए विधानसभा चुनाव में मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, हिमाचल में भाजपा की सरकारें बनी। लेकिन 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या विवादित में ढांचा गिरने के साथ ही उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने 2 अप्रेल 1993 को ऐतिहासिक फैसला दिया और मध्यप्रदेश विधानसभा पुन: प्र्रवत्तित करने का फैसला सुना दिया।

जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी का विस्तार जितने चमत्कारिक ढंग से हुआ है राजनैतिक दल ही नहीं सभी विस्मित है। 1984 में जहां भाजपा को 2 सीटों से संतोष करना पड़ा था। 1989 में हुए लोकसभा चुनाव में इसका संख्या बल 86 हो गया। बाद में 1991 में यह बढ़कर 119 हो गया। अगले लोकसभा चुनाव 1996 में 161, 1998 में 179 और 1999 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा की शक्ति अंक बल के साथ 182 हो गयी। लेकिन 2004 में यही अंकबल घटकर 138 पर सिमट गया। अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केन्द्र में 6 वर्षो तक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार सफलतापूर्वक चली और 24 राजनैतिक दल राजग तथा राजग सरकार के साक्षी बने। भारतीय जनता पार्टी पिछले 2004 से कई राज्यों में जहां सत्ता में है। स्वराज से सुराज्य की कल्पना साकार करने में लगी है। केन्द्र में भाजपा विपक्ष में है लेकिन उसके प्रखर विरोधी स्वर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार को सतत निशाने पर लिये है। राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर देशव्यापी आंदोलन किया गया। आतंकवादी के विरोध में बनाई गयी मानव श्रृंखला ने 1 अरब जनता का आक्रोश मुखरित किया। महंगाई ने जहां गरीबों के मुंह से निवाला छीन लिया है देश की जनता भाजपा नीत एनडीए सरकार के कार्यकाल को स्वर्णिम काल के रूप में याद करती है। अटल बिहारी वाजपेयी ने पोखरण दो के सफल विस्फोट से जहां अभेद्य सुरक्षा दी वही देश में मूल्य पंक्ति पर लगाम और स्थिरता प्रदान कर अपने कार्यकाल को स्मरणीय बना दिया।

Saturday 19 July, 2008

परमाणु करार से किस का हित सधेगा ? : डा0 कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

हिन्दी के प्रसिध्द व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई की एक कहानी है। परसाई कहते हैं यदि दुकानदार किसी ग्राहक की प्रशंसा करना शुरू कर दे तो ग्राहक को चौंकन्ना हो जाना चाहिए। इस प्रशंसा का अर्थ केवल इतना ही है कि दुकानदार ग्राहक को लूट रहा है लेकिन ग्राहक फिर भी चुप है। इसलिए दुकानदार की नजर में वह ग्राहक प्रशंसनीय है। इसी तर्ज पर कहा जा सकता है कि यदि अमेरिका किसी दूसरे देश की सरकार की प्रशंसा करना शुरू कर दे तो उस देश के लोगों को चौकन्ना हो जाना चाहिए। अमेरिका की प्रशंसा का अर्थ यह है कि जिस देश की सरकार की वह प्रशंसा कर रहा है वह सरकार अपने देश के हितों की रक्षा की बजाय अमेरिका के हितों की रक्षा कर रही है।

इन दिनों अमेरिका के राष्ट्रपति सोनिया-मनमोहन सिंह सरकार की दिल खोलकर प्रशंसा कर रहे हैं। बुश का कहना है कि मनमोहन सिंह की सरकार अमेरिका के साथ परमाणु समझौता करके एक इतिहास का निर्माण कर रही है। बुश ने ही नहीं अमेरिकी राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी ओबामा भी इस सरकार की प्रशंसा कर रहे हैं। यह परमाणु करार होना चाहिए इसकी चिंता भारत से ज्यादा अमेरिका को है। दिल्ली में अमेरिका के राजदूत ने तो अलग-अलग राजनैतिक दलों के नेताओं को मिलकर करार के फायदे समझाने शुरू कर दिये हैं। कुछ राजनैतिक दलों के नेता तो इन फायदों को समझने के लिए अमेरिका तक का चक्कर लगा आए हैं। अमेरिका में एक बार जाते ही मानो उन्हें बुध्द की तरह ज्ञान प्राप्ति हो जाती है और वे करार के पक्ष में कसीदे पढ़ना शुरू कर देते हैं। जाहिर है कि यह परमाणु करार भारत से ज्यादा अमेरिका के हितों की रक्षा कर रहा है। अमेरिका भारत को परमाणु हथियारों के मामले में काफी अरसे से घेर कर नंपुसक बनाने का प्रयास कर रहा है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार द्वारा परमाणु विस्फोट करने के बाद से तो अमेरिका की यह छटपटाहट और भी बढ़ गई है। लेकिन भारत ने अब तक अमेरिका के आगे झुकने से इंकार किया हुआ था। अमेरिका ने भारत को नीचा दिखाने के लिए ही 2004 में सोनिया-मनमोहन सिंह की सरकार बनाने में अप्रत्यक्ष भूमिका निभाई थी। अमेरिका जानता था कि यदि विश्व बैंक (जो प्रकारांत से अमेरिका का ही बैंक कहना चाहिए) के सलाहकार रहे मनमोहन सिंह भारत के प्रधानमंत्री बन जाते हैं तो उनके माध्यम से परमाणु हथियारों के मामले पर भारत की प्रगति को रोका जा सकता है। भारत अमेरिका का 123 परमाणु करार मूलत: अमेरिका की इसी साजिश का हिस्सा है। इस करार के माध्यम से भारत का पूरा सिविल परमाणु कार्यक्रम अमेरिका का बंधक बन जाएगा और सामरिक आणविक कार्यक्रम अमेरिका के प्रत्यक्ष निरीक्षण में ही आ जाएगा। अमेरिका ने मनमोहन सिंह के हाथ में परमाणु ऊर्जा का झुनझुना पकड़ा दिया है। जिसे वे बजाते हुए पूरे देश में घूम रहे हैं। भारत के जाने माने परमाणु वैज्ञानिक इस झुनझुने की सच्चाई जानते हैं इसलिए भारत सरकार परमाणु करार की समीक्षा वैज्ञानिकों से न करवाकर नौकरशाही से करवा रही है और सोनिया और मनमोहन सिंह एक दूसरे की पीठ थपथपा रहे हैं। भारत को जितनी ऊर्जा की आवश्यकता है उसकी शतांश पूर्ति भी यह करार नहीं कर पाएगा। बहते जल से जितनी जल विद्युत उत्पन्न हो सकती है उससे भारत का ऊर्जा का संकट हल हो सकता है। लेकिन लगता है कि ऊर्जा तो मात्र एक बहाना है। मनमोहन सिंह यह करार पूरा करके अमेरिका के प्रति अपनी स्वामी भक्ति का पुख्ता प्रमाण देना चाहते हैं।

एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि चीन और अमेरिका दोनों ही भारत के परमाणु कार्यक्रम को किसी भी ढंग से रोकना चाहते हैं। चीन पहले ही अमेरिका के परमाणु क्लब में शामिल हो चुका है। अमेरिका उसे चाहकर भी रोक नहीं पाया था लेकिन अब जब एक बार चीन उस क्लब में शामिल हो गया है तो अमेरिका ने उसके साथ हमराह होने में ही भलाई समझी। वैसे भी चीन और अमेरिका दोनों ही साम्राज्यवादी प्रकृति के देश हैं। दोनों में भौतिकवाद को लेकर वैचारिक समानता है। इसलिए लंबी राजनीति में दोनों एक दूसरे के स्वाभाविक साथी हो सकते हैं और हो भी रहे हैं। चीन कभी नहीं चाहेगा कि भारत आणविक दृष्टि से शक्तिशाली देश बने। इसी प्रकार अमेरिका की मंशा है कि एशिया में यदि भारत उसके आगे घुटने टेक दे तो उसका अश्वमेध यज्ञ पूरा हो जाएगा। भारत के घुटने टेकने का अर्थ यह होगा कि प्राचीन संस्कृति और सभ्यता का अंतिम दुर्ग भी एक चर्च के आगे ढह गया।

इसे देश का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि संकट की इस घड़ी में देश का नेतृत्व उन लोगों के हाथों में चला गया जिनके लिए देश की प्राचीन संस्कृति का अर्थ महज सांप्रदायिकता है और अमेरिका के आगे बिकने का अर्थ प्रगति की लंबी छलांग है। मनमोहन सिंह बुढ़ापे में यह लंबी छलांग लगाना चाहते हैं। इसी प्रकार की लंबी छलांगे कभी पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लगाई थी और वे देश को जाते-जाते कश्मीर समस्या और चीन के हाथों शर्मनाक पराजय दे गये थे। अब उसी परंपरा में मनमोहन सिंह यह छलांग लगाना चाहते हैं और हो सकता है कि इस देश को अमेरिका की आणविक गुलामी दे जाएं। मनमोहन सिंह अच्छी तरह जानते हैं कि अमेरिका से किया जा रहा परमाणु समझौता केवल 123 समझौता नहीं है बल्कि इसके साथ अमेरिकी संसद द्वारा पारित हाइड एक्ट भी जुड़ा हुआ है। मनमोहन सिंह यह कहकर नहीं बच सकते कि भारत का इस हाइड एक्ट से कुछ लेना देना नहीं है यह भारत और अमेरिका के बीच की संधि नहीं है। भारत चाहे हाइड एक्ट से बंधा हुआ हो या न हो परंतु इतना तो मनमोहन सिंह को पता है कि अमेरिका इस एक्ट से अच्छी तरह बंधा हुआ है। यह हाइड एक्ट भारत के आणविक परमाणु कार्यक्रम को रोकने का एक स्पष्ट जाल है।

आश्चर्य की बात है कि भाजपा इस समझौते का विरोध कर रही है। संपूर्ण वामपक्ष इस समझौते का विरोध कर रहा है। लेकिन इसके बावजूद मनमोहन सिंह इस सीमा तक अड़े हुए हैं कि वे सरकार गिराने को भी तैयार है। आखिर अमेरिका के पक्ष में मनमोहन सिंह की क्या मजबूरी है, इसकी जांच किसी निष्पक्ष एजेंसी से करवानी चाहिए। नहीं तो जैसा किसी शायर ने कहा है-'लमहों ने खता की, सदियों ने सजा पाई।' मनमोहन सिंह की लमहों की यह खता सदियों तक आणविक क्षेत्र में भारत को पंगू बनाकर रख देगी।
(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

Friday 18 July, 2008

प्रगतिशील मार्क्‍स से अपना पिंड छुड़ाना चाहते है- निर्मल वर्मा

सुप्रसिध्द साहित्यकार श्री निर्मल वर्मा से श्री शंकर शरण की बातचीत

प्रश्न- धर्म और निरपेक्षता पर आपके विचारों की सेक्यूलर, वामपंथी बुध्दिजीवियों ने बड़ी आलोचना की है। आपने धर्म को रिलीजन का पर्याय न कहकर अधर्म के विपरीत वाली भारतीय मान्यता के रूप में विचार करने का आग्रह किया। आप कुछ स्पष्ट करेंगे?

उत्तर- आज प्रश्न यह नहीं है कि राजनीति को धर्मावलम्बी होना चाहिए या धर्मनिरपेक्ष। दोनों संज्ञाएं खण्डित मानसिकता का बोध कराती हैं। प्रश्न यह पूछना चाहिए कि धर्म तो क्या धर्म? धर्मनिरपेक्षता तो किस धर्म के प्रति निरपेक्षता? हमारे सेक्यूलर लोग पश्चिम की भोंडी नकल में भारतीय सभ्यता बोध की विशिष्ट धर्म भावना को तिरस्कृत कर अपना अज्ञान ही प्रदर्शित करते हैं। दु:ख की बात यह है कि जो काम 19वीं सदी के ईसाई मिशनरी यहां नहीं कर सके, वह हमारे धर्मनिरपेक्षियों ने कर दिखाया। हमारे धर्म बोध के प्रति हिकारत पैदा करके। यह एक भयंकर घटना है। भारतीय संस्कृति की दृष्टि स्वयं ही बहुलवादी रही है, जो सेक्युलरिस्टों की दृष्टि से बहुत भिन्न है। ये भारतीय एकता को केवल अनेकता में देखते है। अनेकता के भीतर जो एकनिष्ठ बोध है, उसे अनदेखा कर देते हैं। ये सेक्यूलर फण्डामेण्टलिज्म है, जो धार्मिक फण्डामेण्टलिज्म से भी बुरा है। क्योंकि यह बुध्दिवाद की आड़ में अन्धविश्वासी कट्टरता पैदा करता है। इसी का विकृत रूप सनकी, स्वार्थपरक मूल्यहीनता है जो चारों तरफ दिख रही है। इसे धर्मनिरपेक्षता ने पैदा किया है, जो सांस्कृतिक मूल्यों से रिक्त और परम्पराशून्य है। साम्प्रदायिक असहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षी मूल्यहीनता दोनों ही उस भौतिक परजीवी जीवन शैली से पैदा हुए हैं जो पिछले पचास वर्ष से भारत में अपनायी गयी। इसे समझने की जरूरत है।

प्रश्न- सोवियत संघ के विघटन के बाद हमारे देश में प्रगतिशील संगठनों ने अपने रिकार्ड की कोई समीक्षा नहीं की। इस चुप्पी को क्या समझे?

उत्तर- मार्क्‍स ने कभी कम्युनिज्म को यूरोप का प्रेत कहा था। आज कम्युनिज्म के लिए स्वयं इतिहास ही एक प्रेत बन गया है। इसीलिए प्रगतिशील उससे अपना पिंड छुड़ाना चाहते है।

प्रश्न- मगर क्या कारण है कि इतनी बड़ी उथल-पुथल का कोई असर दिखाई नहीं देता?

उत्तर- इसका एक सीधा जवाब यह है कि जब एक चीज आपको एक तरह का सहारा, या सुरक्षा देती रहे तो वह कितनी ही खोखली क्यों न हो जाए, आप उसे हटाना नहीं चाहते। प्रगतिवादी भी अपनी अस्मिता को खतरे में नहीं डालना चाहते। वे यह नहीं चाहते कि अपने समूचे जीवन की विचारधारा का पुनर्मूल्यांकन करने का जोखिम उठाए, जिसके कारण उन्हें किसी और रास्ते पर जाने का जोखिम उठाना पड़े।
(साभार : संसार में निर्मल वर्मा, संपादक- गगन गिल, नोट-यह साक्षात्कार 15 अप्रैल, 2001 को हिन्दुस्तान में प्रकाशित हुआ था।)

Wednesday 16 July, 2008

आरुषी हत्याकांड और मीडिया - आशुतोष



12 जुलाई 2008 की अलसायी सुबह। टेलिविजन पर गाजियाबाद की डासना स्थित जिला कारागार के बाहर का दृश्य। वातावरण में भारीपन है। कैमरामैन कारागार के मुख्य द्वार को फोकस कर अपने कैमरे सेट कर चुके हैं। पत्रकारों का हुजूम बैचेनी में टहल रहा है।


साढ़े आठ बजे एक कार आकर रुकती है। पत्रकार सक्रिय हो जाते हैं। कैमरामैन गाड़ी पर फोकस कर देते हैं। गाड़ी से नोयडा में दोहरे हत्याकांड में अपनी मासूम बेटी आरुषी को गंवा चुकी नूपुर तलवार उतरती हैं। उनके पति डॉ राजेश तलवार आज जेल से रिहा होने वाले हैं। साथ में राजेश तलवार के भाई दिनेश तलवार और उनकी पत्नी भी हैं।


पत्रकार नूपुर तलवार के पास पहुंचते हैं। जाना-पहचाना सवाल-कैसा महसूस कर रहीं हैं? नूपुर तलवार चुपचाप जेल के दरवाजे की ओर बढ़ जाती हैं। अंदर से राजेश तलवार को आने में कुछ मिनट लगते हैं। नूपुर बैचेनी से दरवाजे की ओर देख रही हैं। कैमरा उन पर फोकस है। जो कुछ भी हो रहा है वह स्क्रीन पर सामने है पर न्यूज रूम से आ रही एंकर की आवाज मौके पर मौजूद पत्रकार को कुछ न कुछ बोलने के लिये विवश करती है।


अचानक पत्रकार को लगता है उसे कुछ खास हाथ लग गया है। उसकी आवाज उभरती है - नूपुर तलवार के लिये यह इन्तजार बहुत मुश्किल हो रहा है। देखिये ! देखिये ! वे बैचेनी में अपने नाखून चवा रहीं हैं। सच में, उनके नाखून कुतरने पर तो किसी और पत्रकार का ध्यान ही नहीं गया था। मुझे लगा कि न्यूज रूम से अब एंकर की आवाज गूंजेगी - देखिये, एक बार फिर से हम दिखा रहे हैं नूपुर तलवार के नाखून कुतरने के दृश्य। यह एक्सक्लूसिव दृश्य केवल हमारे चैनल के पास ही मौजूद हैं। लेकिन इसी बीच डॉ राजेश तलवार कारागार से बाहर आ गये और नाखून कुतरने के एक्सक्लूसिव दृश्यों के पुनरावर्तन से दर्शक वंचित रह गये।


डॉ राजेश तलवार बाहर आकर सभी परिवारीजनों के गले लगते हैं। उनमें उनकी पत्नी नूपुर भी शामिल हैं। परिवार के लिये यह भावुक क्षण है। इस पर कैमरे की तीखी निगाह है। सभी चैनल इन क्षणों की ब्यौरेवार जानकारी अपने-अपने दर्शकों को परोसने लगते हैं। रिपोर्टर की आवाज आती है - नूपुर के गले लग कर राजेश भावुक हो गये, उनकी आंखें भर आयीं। आधे घंटे बाद भी चैनल उस दृश्य को दोहरा रहा था किन्तु अब बता रहा था कि राजेश तलवार नूपुर के गले लग कर रो पड़े।


एक चैनल के न्यूज रूम से बताया जा रहा था कि राजेश तलवार के चेहरे पर खुशी दिखाई दे रही थी। खुशी के आंसू उनकी आंखों से छलक पड़े। चैनल ने यह नहीं बताया कि ऐसी कौन सी खुशी तलवार परिवार को हासिल हो गयी थी। कुछ पल बाद ही जेल सूत्रों के माध्यम से खबर दी गयी कि तलवार इतने टूट चुके थे कि आत्महत्या करने की बाते करने लगे थे। आधा घंटा और बीता। अब चैनल बता रहा था कि राजेश तलवार नूपुर के लगे लग कर फूट-फूट कर रोये।


एक्सक्लूसिव के चक्कर में एक उत्साही पत्रकार जेलर रामजी सिंह के पास जा पहुंचे। उन्होंने बताया कि तलवार उदास रहते थे, हिन्दुस्थान टाइम्स पढ़ते थे, जेल में दांतों के रोगियों का इलाज करने के इच्छुक थे किन्तु डेंटिस्ट की कुर्सी लम्बे समय से टूटी होने के कारण यह संभव नहीं हो सका। परसों ही वह कुर्सी ठीक होकर आयी थी और उम्मीद थी कि तलवार उस पर बैठ कर दांत के मरीज कैदियों का इलाज कर सकेंगे किंतु अच्छा हुआ कि उन्हें जमानत मिल गयी।


जोश से लबरेज चैनलवंशी पत्रकार ने अंतत: पूछ ही लिया - टीवी पर वह कौन सा चैनल देखना पसंद करते थे। उसे उम्मीद रही होगी कि जेलर महोदय उसके चैनल का ही नाम लेंगे। उम्मीद गलत भी नहीं थी क्योंकि उनका चैनल ही यह इंटरव्यू ले रहा था किन्तु जेलर महोदय जरा भी मीडिया फ्रें डली नहीं निकले। साफगोई दिखाते हुए उन्होंने कहा - टीवी पर तो बार-बार आरुषी की हत्या और तलवार के बारे में तरह-तरह की बातें आती रहती थी। हर समय उनके घाव कुरेदे जाते थे इसलिये वे टीवी से तो दूर ही रहते थे। संयोग से इस बात-चीत का सीधा प्रसारण हो रहा था।


इसके बाद शुरू हुई गाजियाबाद से नोयडा तक की रोमांच भरी यात्रा। जांबाज पत्रकार लगातार तलवार की कार का पीछा कर रहे थे। कभी उनकी कार को ओवरटेक करते हुए उनकी कार के अंदर के दृश्य अपने कैमरे में कैद करने की कोशिश करते तो कभी आगे - पीछे से चित्र लेते। कई वर्ष पहले पापारेजी पत्रकारों द्वारा पीछा किये जाने से बचने के लिये भागती ब्रिटेन की राजवधू डायना की मृत्यु के समाचार पढ़ कर मन में जिस प्रकार का चित्र बना था, वह आज टेलिविजन के पर्दे पर साकार दिखाई दे रहा था।
सभी चैनलों के न्यूज रूम से बार-बार घोषणा हो रही थी- हमारे तमाम पत्रकार अलग-अलग जगहों पर मौजूद हैं और हमें पल -पल की जानकारी दे रहे हैं। जलवायु विहार स्थित तलवार के निवास पर भी पत्रकारों की भीड़ थी। सूचना आ रही थी कि शीघ्र ही तलवार परिवार वहां पहुंचने वाला है। फिर खबर आई कि वे लोग सेक्टर 61 स्थित सांई बाबा मंदिर पर रुक गये हैं। तभी तलवार के पड़ोसी दुर्रानी की गाड़ी जलवायु विहार से बाहर निकलीऔर तलवार की ससुराल जा पहुंची। पत्रकारों ने सूंघ लिया कि दाल में कहीं काला है। देखते ही देखते पत्रकारों की फौज जा पहुंची तलवार की ससुराल जहां थोड़ी ही देर में तलवार परिवार भी जा पहुंचा।


अंतत: डॉ राजेश तलवार को हाथ जोड़ कर निवेदन करना पड़ा कि आज के दिन वे केवल अपनी बेटी को याद करना चाहते हैं इसलिये अच्छा हो कि उन्हें अकेला छोड़ दिया जाय। इसके बाद पत्रकारों को तो उनके घर से वापस लौटना पड़ा किन्तु शाम ढ़लते ही प्राइम टाइम पर एक बार फिर तलवार परिवार की चर्चा शुरू हो गयी।


कहीं पचास दिन का पूरा घटनाक्रम और उसके फुटेज को जोड़ कर कहानी परोसी जा रही थी तो कहीं दीपक चौरसिया तलवार परिवार की मानसिक स्थिति का सूक्ष्म विवेचन कर रहे थे। उन्होंने अपने विवेचन को ठोस आधार देने के लिये तलवार परिवार की नजदीकी श्रीमती चङ्ढा को फोन लाइन पर जोड़ा हुआ था।


आई बी एन सेवन चैनल एंटीक्लाइमेक्स थ्योरी पर काम करते हुए आरोपी कृष्णा के पिता और उसकी भांजी को स्टूडियों में ले आया था। वे लोग कृष्णा के हत्याकांड में शामिल होने का खंडन कर रहे थे। कृष्णा की भांजी का हालांकि विस्तृत परिचय पाने का मौका तो नहीं मिला किन्तु ऐसा नहीं लग रहा था कि वह कैमरे का पहली बार सामना कर रही हैं। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कृष्णा को के वल इसलिये फंसाया गया है क्यों कि वह गरीब है। जबकि तलवार अमीर होने के कारण बच निकले। इस बात को एंकर ने भी एक से अधिक बार जोर देकर दोहराया। कृष्णा की भांजी ने यह बताते हुए अपना महत्व स्थापित किया कि सुबह से सभी चैनल उनसे बात करने के लिये पीछे पड़े हैं और अपने-अपने स्टूडियों में आमंत्रित कर रहे हैं। अन्य चैनल भी पीछे नहीं थे। सभी अपनी-अपनी तरह से सीबीआई की कहानी में छेद तलाशने के अभियान में जुटे थे।


मजेदार बात यह भी हुई कि इस बार सभी चैनल और अखबार अन्य चैनलों और अखबारों पर घटना को तोड़ने-मरोड़ने तथा डॉ तलवार को अनावश्यक रूप से अपराधी की तरह प्रस्तुत करने के आरोप लगाने लगे। आज दो दिन बाद भी तलवार सुर्खियों में बने हुए हैं, चैनल इस, उस या जाने किस-किस तरह से विश्लेषण कर मामले को खींच रहे हैं।


सवाल यह है कि मीडिया किसी एक घटना को कितना मथेगी? इसके अतिरेक में जो अन्य महत्वपूर्ण खबरें नजरअंदाज कर दी गयीं अथवा बेहद कम कवरेज मिला उनके विषय में मीडिया क्या स्पष्टीकरण देगी? अथवा क्या मीडिया को भी जनसामान्य की जिज्ञासाओं से परे अपना कार्य व्यापार चलाना है? क्या वह भी समय और समाज की मांग के स्थान पर अपनी सुविधा से सूचनाओं को प्रस्तुत करेगी?
कौन से ऐसे पैमाने हैं जिनके आधार पर मीडिया ने इसे देश की सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री का नाम दे दिया? क्या कभी मीडिया ने उन हजारों हत्याकांडों के विषय में भी इतनी तत्परता दिखायी है जो वर्षों बाद भी अनसुलझे हैं? क्या किसी झुग्गी बस्ती में मौत के घाट उतार दी जाने वाली किसी किशोरी की मौत और नोयडा की जलवायु विहार जैसी समृध्द बस्ती में होने वाली हत्या के बीच मीडिया भी फर्क करती है? अगर घटना स्थल तक चैनलों की ओ बी वैन जा सकती है तो वह ब्रेकिंग न्यूज और अगर नहीं जा सकती तो ब्लैक आउट, क्या यही पैमाना है?


विडंबना तो यह है कि मीडिया जांचकर्ता, जासूस और न्यायाधीश, सभी की भूमिका स्वयं ही निभा रही है। मीडिया द्वारा बनाये गये अनावश्यक दवाब के कारण ही सीबीआई हड़बड़ी में अधकचरी कहानी के साथ ही सामने आयी और अब मीडिया उसकी कहानी की बखिया उधेड़ने में जुट गयी है।
इस आलेख को कितना भी लम्बा किया जा सकता है। किन्तु इसे एक पत्रकार की टिप्पणी के साथ समेटना उचित होगा। जब मैंने तलवार की रिहाई के बाद प्राइम टाइम में एक पत्रकार की एंकरिंग की तारीफ करते हुए बधाई दी तो उसने कहा - ' आये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास। ' शायद यह पंक्ति हर दूसरे पत्रकार की व्यथा है।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से जुडे हैं।)

दोहरे मापदंड से नहीं उबरे वामपंथी



लेखक- राजनाथ सिंह 'सूर्य'


हमारे देश का वामपंथी आंदोलन प्रचारात्मकता के सहारे अपनी वास्तविकता पर परदा डालने में निरंतर सफल रहा है। प्रेरणा के लिए कभी सोवियत यूनियन और अब चीनोन्मुखी होने के अतिरेक में देशहित विरोधी आचरण के बावजूद 'गरीबों का मसीहा' होने के वामपंथियों के दावे की साख का बने रहना बहुत बड़ी बात है। दुनिया के किसी भी देश में वामपंथ के परानुकरण का ऐसा स्वरूप कभी नहीं रहा, जैसा भारत में था और आज भी मौजूद है।


सोवियत क्रांति से प्रभावित होकर जिन देशों ने साम्यवाद या मार्क्‍सवाद को अपना आदर्श माना, उसका अनुकरण किया, उनमें चीन को हम अग्रणी मान सकते हैं, जो आज भी साम्यवाद का प्रतिमान माना जाता है। लेकिन यदि पूर्व सोवियत संघ की छत्रछाया से निकलने का काम किसी देश ने सबसे पहले किया, तो वह चीन ही था, जहां का मार्क्‍सवाद लेनिन या स्टालिन के बजाय माओत्से तुंग के प्रति निष्ठावान बना। लेकिन भारत में साम्यवादियों की निष्ठा, चाहे वह मार्क्‍सवादी पार्टी के नाम से, लेनिन और स्टालिन में बनी हुई है। यह और बात है कि रूस ने उनके शव तक को ठिकाने लगा दिया हो।
हमारे देश में माओवादी नाम से अनेक संगठन क्रांति के नाम पर शस्त्र उठाकर सत्ता को चुनौती दे रहे हैं। अब तो पड़ोसी नेपाल के चुनाव में प्रचंड की जीत से देश में सक्रिय माओवादियों के बल और व्यवहार में और बढ़त की आशंका जताई जाने लगी है। भले ही प्रचंड ने भारत में माओवादियों से हिंसा त्यागने की अपील की हो। लेकिन इन माओवादियों की दिशा और दृष्टि स्पष्ट है, उनका मकसद महज हिंसा फैलाना है, इसलिए उनसे निपटना बहुत कठिन नहीं है। जैसा पचास के दशक में तेलंगाना में हो चुका है। लेकिन जो साम्यवादी 'मारो घुटना, फूटे आंख' के तौर-तरीके से सक्रिय हैं, और अपना प्रभाव लगातार बढ़ा रहे हैं, उनसे खतरे को लेकर सिंगूर और नंदीग्राम की घटनाओं के घटने के बावजूद हमें चेतना का घोर अभाव दिखाई पड़ता है।


साम्यवादियों के दोहरे चरित्र के बार-बार बेनकाब होने के बावजूद उनकी नारेबाजी की शक्ति अब भी उपयोगी साबित हो रही है। सारी दुनिया जब तिब्बत के शांतिप्रिय बौध्दों को उनकी धार्मिक स्वायत्तता दिलाने के पक्ष में खड़ी है, तब साम्यवादी 'हिंसा पर उतारू' तिब्बतियों के 'विद्रोह' को कुचलने के चीन के अधिकार का उसी प्रकार समर्थन कर रहे हैं, जैसा उन्होंने पिछली सदी में साठ के दशक में चीन का यह कहकर समर्थन किया था कि चीन ने भारत पर नहीं, बल्कि भारत ने चीन पर आक्रमण किया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अरुणाचल यात्रा का उन्होंने चीन के समान ही विरोध किया।


इतना ही नहीं, राज्य सरकार द्वारा तिब्बत धर्मगुरु दलाई लामा को तवांग में आने का न्यौता दिया जाना भी उन्हें भारत-चीन संबंधों के लिए कांटा दिखाई पड़ता है। वामपंथियों के इसी आचरण से प्रसन्न चीन के राजदूत ने कोलकाता जाकर वाम मोरचा सरकार को बधाई दी। और गौर कीजिए कि पश्चिम बंगाल सरकार ने उसी चीनी राजदूत की बधाई हुलसकर स्वीकार की, जिसने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अरुणाचल यात्रा की सार्वजनिक तौर पर भर्त्सना की थी।


हमारे देश के साम्यवादी मानते हैं कि अमेरिका के साथ परमाणु करार भारत के हितों का विरोधी है। लेकिन जब उनसे पूछा जाता है कि चीन तो ऐसा करार कर चुका है, तो उनका जवाब होता है कि चीन से हमें क्या लेना-देना है। लेकिन जब चीन द्वारा पाकिस्तान को लगातार मजबूत बनाने, तिब्बतियों का विनाश करने या फिर उसके घटिया माल को भारतीय बाजार से निकालते का सवाल आता है, तो वे चुप हो जाते हैं, विरोध करते हैं या फिर बगले झांकने लगते हैं।


भारत के साम्यवादियों का यह दोहरा मापदंड या स्वरूप नया नहीं है। असल में, वे नहीं चाहते कि भारत में एक स्थिर और मजबूत इरादों वाली सत्ता स्थायी हो, क्योंकि ऐसा होने से उनके इरादों पर पानी फिर जाएगा। कटु वास्तविकता यही है कि आज जिस स्थिति में देश घिरा है, उसमें केंद्र में कमजोर सरकार होना अभिशाप हो सकता है। साम्यवादी मनमोहन सिंह सरकार को अब हर हाल में गिराना चाहते हैं, क्योंकि अमेरिका के साथ परमाणु करार के मसले पर सरकार ने उन्हें ठेंगा दिखा दिया है। लेकिन वास्तव में वे कभी भी यूपीए सरकार की स्थिर और सबल छवि बनने देने के पक्ष में नहीं थे। और उनके इस आचरण ने देश में राजनीतिक अस्थिरता के माहौल को बढ़ावा देने में भरपूर सहयोग किया है।


शक्तिविहीन सत्ता के कारण अतीत में जो कुछ हुआ है, उसकी पुनरावृत्ति फिर न हो सके, इसके लिए हमें साम्यवादियों के वर्तमान चाल-चरित्र और चेहरे को ठीक से देखना होगा। अलबत्ता इस समय यह कहना भी कठिन है कि समाजवादी पार्टी ने यूपीए एवं वामपंथी, दोनों समन्वय समितियों से अलग होकर 'स्वतंत्र वाम नीति' का जो नारा दिया है, उसका कितना असर होगा। लेकिन यह बिलकुल स्पष्ट है कि वाम मोरचे से सामंजस्य की घोषणा का पर्दाफाश होना शुरू हो गया है। (साभार : अमर उजाला, 14जुलाई, 2008)

Tuesday 15 July, 2008

कौन सी दुनिया में रहते हैं वामपंथी



लेखिका- तवलीन सिंह

पिछले सप्ताह जब कामरेड प्रकाश करात ने पत्रकारों को बुलाकर ऐलान किया कि वामपंथी दल सरकार से अपना समर्थन वापिस ले रहे हैं तो मेरे दिमाग में एक ही बात आई काश कि यह पिछले वर्ष ही हो गया होता। शायद कुछ आर्थिक सुधार हो गए होते, कुछ विकास के कार्य, कुछ आम सुविधाओं में परिवर्तन। पिछले अगस्त से ही वामपंथी दल सरकार को डरा-धमका रहे हैं। तब से जब प्रधानमंत्री ने साफ शब्दों में कहा कि परमाणु करार देश के हित में है और वह इस करार को रद्द करने को तैयार नहीं हैं। प्रधानमंत्री ने इस करार को इतना महत्वपूर्ण समझा कि उस वक्त त्यागपत्र देने को तैयार थे। बेचारे डाक्टर साहिब शरीफ आदमी हैं लेकिन जब उन्हीं के पार्टी के लोग उनको कहने लगे कि सरकार बचाना करार से ज्यादा जरूरी है तो चुप हो गए। वामपंथियों की धमकियां बर्दाश्त करते रहे। परिणाम अच्छा न हुआ। वामपंथियों ने जब देखा कि सरकार को डराना आसान है तो हर दूसरे-तीसरे दिन कोई नई धमकी देते रहे। यूं न करोगे तो ऐसा होगा, यूं करोगे तो हम यूं करेंगे, इत्यादि। सरकार पीछे हटती रही और वह अपना लाल झंडा हाथ में लिए नारे लगाते हुए आगे बढ़ते रहे।

परमाणु करार के मुद्दे पर विश्लेषण सरकार के गिरने-बचने तक ही सीमित रहा है जबकि समस्या इस एक मुद्दे की नहीं बल्कि भारत के राजनीतिज्ञों की राजनीतिक पिछड़ेपन की है। ऐसा लगता है कि इस देश के तकरीबन सारे नेता उस समय में अटके हुए हैं जब शीत युध्द ने दुनिया को दो खेमों में बांट रखा था। वामपंथी दलों का उस समय में अटके रहना समझ में नहीं आता है। यह वह समय था जब हम सोवियत रूस को महाशक्ति मानते थे और माक्र्सवादी विचारधारा की कद्र दुनिया भर में थी। लेकिन मायावती और चंद्रबाबू नायडू के परमाणु करार पर बयान सुनकर ऐसा लगता है कि उनको अभी तक जानकारी नहीं कि शीत युध्द समाप्त हुए कोई 20 वर्ष हो गए हैं। आज अमरीकी 'सामंतवाद' की बातें करना कोई मतलब नहीं रखता है। मायावती से जब सुना कि करार का विरोध वह इसलिए कर रही हैं कि यह मुसलमानों के खिलाफ है, मुझे हंसी आई। फिर जब उन्होंने आधार यह बताया कि अगर अमरीका से हम परमाणु ऊर्जा लेने की कोशिश न कर रहे होते तो ईरान तक पाइप लाइन अवश्य बनाते गैस लाने के लिए। मुझे ऐसा लगा कि उन्हें बिलकुल कुछ समझ नहीं आया है अंतरराष्ट्रीय मुद्दों के बारे में। राष्ट्रीय स्तर की नेता बनने की अगर उम्मीद रखती हैं तो अपने सलाहकार जरूर बदलें। अगर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के बयान सुनकर मायूसी हुई तो उससे ज्यादा तब हुई जब आंध्र के पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि मनमोहन सिंह जार्ज डब्ल्यू बुश के इशारे पर नाच रहे हैं।

कौन सी दुनिया में रहते हैं ये लोग। क्या इतना भी नहीं जानते कि अंतरराष्ट्रीय भाषा ही बदल गई है? जब सोवियत यूनियन अपनी ही नाकामियों के कारण टूटा और दुनिया को मालूम पड़ा कि आर्थिक तौर पर वह बिल्कुल खोखला है तब से दुनिया बदलना शुरू हुई। बर्लिन की दीवार गिरी, पूर्वी यूरोप की कम्युनिस्ट सरकारें सब रूई की तरह उड़ गईं। चीन ने पहले ही समझ लिया था कि वामपंथी आर्थिक नीतियों में कोई दम नहीं है। हमसे 10 वर्ष पहले उन्होंने आर्थिक सुधार करना शुरू किया। आज चीन भारत से हर स्तर पर आगे है- शिक्षा, स्वास्थ्य और खुशहाली। निजी तौर पर मैं यह कह सकती हूं कि 1997 में मौका मिला था मुझे उस देश का दौरा करने का और मैं दंग रह गई थी उनकी सड़कें, उनकी आम सुविधाएं, उनके शहर देखकर। जो बेहाली, जो गरीबी दिल्ली-मुंबई की सड़कों पर खुलेआम दिखती है वैसी गरीबी चीन में तब भी नहीं थी। और हम हैं कि ऐसे वामपंथी दल पाले हुए हैं जिन्होंने मनमोहन सरकार को आर्थिक सुधार करने से बिल्कुल रोक रखा है।

तो अब क्या होगा? सरकार अगर बचती है तो कुछ करके दिखाएगी क्या? उम्मीद कम है क्योंकि चुनाव समय पर भी अगर होते हैं तो दूर नहीं। चुनाव सिर पर जब होते हैं तो कोई भी सरकार कुछ नहीं करती। लेकिन मोहलत अगर मिलती है प्रधानमंत्री को तो कम-से-कम उन 1500 विश्वविद्यालयों की नींव तो रखें जिनकी सख्त जरूरत है। शिक्षा नीति में अगर थोड़ा-बहुत भी सुधार आएगा तो वे सैकड़ों स्कूल बनना शुरू हो जाएंगे जिनके बिना 21वीं सदी के अंत तक भारत के बारे में कहा जाएगा कि दुनिया के सबसे ज्यादा अशिक्षित लोग भारत में मिलते हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार अगर नहीं होता तो बाकी आर्थिक सुधार बेमतलब हो जाते हैं इसलिए कि उनका लाभ सिर्फ वे लोग ले सकते हैं जिनको शिक्षित होने के नाते समझ है। वामपंथी दल इतने पिछड़े हैं हमारे, इतने अंधे कि अभी तक समझते हैं कि आर्थिक सुधार सिर्फ अमीरों के लिए हैं।

इतना नहीं समझ पाए हैं कि अमीर भारतीयों का आज यह हाल है कि उनको सरकारी सुविधाओं की जरूरत ही नहीं है। बच्चों की पढ़ाई प्राइवेट स्कूलों में होती है। बच्चों की पढ़ाई प्राइवेट स्कूलों में होती है, इलाज प्राइवेट अस्पतालों में, यहां तक कि ऊर्जा, पानी का भी इंतजाम वह खुद कर लेते हैं। अच्छी आम सुविधाओं के अभाव के कारण पिसता है मध्यम वर्ग और बेचारा आम आदमी जो निर्भर है सरकारी सेवाओं पर।

यानी आम आदमी के सबसे बड़े दुश्मन अगर कोई हैं तो वे हैं अपने वामपंथी दल। उनके जाने से किसी को नुक्सान नहीं होने वाला, किसी ने दो आंसू नहीं बहाने। (साभार : पंजाब केसरी / 12 जुलाई, 2008)

मार्क्‍सवादियों की विफलता



लेखक : बनवारी
गत 12 जुलाई को जनसत्ता में सुप्रसिद्ध स्‍तंभकार श्री बनवारी का वर्तमान भारतीय राजनीति में मार्क्‍सवादियों की भूमिका पर केद्रिंत लेख प्रकाशित हुआ है। इस लेख की व्‍यापक चर्चा हुई है। मार्क्‍सवादियों की मनोदशा को समझने में यह लेख सहायक होगा, इसी मकसद से हम इसे यहां भी प्रकाशित कर रहे है-


हरकिशन सिंह सुरजीत ने अपने राजनीतिक कौशल से मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में पहुंचा दिया था। प्रकाश कारत ने उसे फिर किनारे बैठा दिया है। करात को उम्मीद थी कि वे भारत-अमेरिका नाभिकीय समझौते को मुद्दा बनाकर केंद्र सरकार को गिरा देंगे। इस मुद्दे पर राजनीतिक ध्रुवीकरण होगा। कांग्रेस अलग-थलग पड़ जाएगी, इससे जो राजनीतिक संकट पैदा होगा उसमें मार्क्‍सवादियों को आगे बढ़ने का मौका मिल जाएगा।


दुनिया भर के साम्यवादियों का एक घोषित उद्देश्य अमेरिकी साम्राज्यवाद को शिकस्त देना है। भले ही चीन और रूस के साम्यवादी नेताओं तक ने बदलती परिस्थितियों में उसी अमेरिकी साम्राज्यवाद से सहयोग करना लाभदायक समझा हो। भारतीय मार्क्‍सवादी दिखा देंगे कि वे अपनी सीमित शक्ति के बावजूद अमेरिकी मंसूबों पर पानी फेर सकते हैं और भारत को अमेरिका का सहयोगी बनने से रोक सकते हैं। इससे अंतरराष्ट्रीय साम्यवादी बिरादरी में उनका यश बढ़ेगा। इस तरह से वे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर अपनी कीर्ति फैला सकेंगे। इस कीर्ति से उन्हें अपने साम्यवादी आंदोलन के लिए नए सिपाही मिलेंगे। उनके बल पर अगले चुनाव में वे और बड़ी शक्ति होंगे, उनकी और बड़ी भूमिका होगी और देर-सबेर सत्ता उनकी पकड़ में आ जाएगी।


लेकिन राजनीतिक परिस्थितियां किसी किताबी सिध्दांत के चश्मे से जितनी सरल दिखाई देती हैं, वास्तव में उतनी सरल होती नहीं हैं। इसलिए कुछ दिन पहले तक जो कांग्रेस सरकार वामपंथियों की बैसाखी पर अनिवार्य रूप से टिकी दिखाई देती थी, उसने अपने टिके रहने के और सहारे ढूढ़ लिए। सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री न बनने देने से मुलायम सिंह यादव के प्रति पैदा हुई अपनी चिढ़ छोड़ दी। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के साथ आने और परमाणु समझौते का समर्थन करने का रास्ता बना।
भाजपा खेमे की कई पार्टियों तक को भारत-अमेरिका नाभिकीय समझौते में राष्ट्रीय सुरक्षा दिखाई दी और मनमोहन सिंह सरकार का बने रहना सुनिश्चित हो गया। कांग्रेस, जिसे मार्क्‍सवादी इस मुद्दे पर देश की राजनीति में अलग-थलग कर देना चाहते थे, मुख्यधारा में बनी रही, मार्क्‍सवादी खुद अलग-थलग पड़ गए। जो संकट वे कांग्रेस के लिए पैदा करना चाहते थे, वह अब उन्हीं के गले में पड़ गया है।


मार्क्‍सवादी अपने संसदीय शक्ति के सबसे बड़े स्रोत पश्चिम बंगाल में मुश्किल में हैं। बिगड़ती हुई आर्थिक परिस्थितियों का जो गुस्सा कांग्रेस के खिलाफ फूटना चाहिए था वह पश्चिम बंगाल में उन्हीं के खिलाफ फूट रहा है। पिछले इकतीस साल में राज्य की सत्ता में खूंटा गाड़े बैठी माकपा को इसका कोई कारण समझ में नहीं आ रहा। मई में हुए पंचायत चुनावों में पहली बार उसे राज्य की ग्रामीण आबादी अपने खिलाफ होती दिखाई दी थी। जून के अंत में हुए नगरपालिका चुनाव में उसकी और भी बुरी हार हुई। मई में वह चार जिला परिषदें, अनेक पंचायत समितियां और लगभग आधी ग्राम पंचायतें हार गई थी। जून में हुए नगरपालिका चुनावों में वह तेरह में से आठ नगरपालिकाएं हार गई। बाकी पांच में भी सिर्फ तीन उसे मिली हैं और दो सहयोगियों को।


लोग कहने लगे हैं कि अगले आम चुनाव में मार्क्‍सवादियों को पश्चिम बंगाल से अपनी कम से कम आधी सीटें खोनी पड़ेंगी। इसलिए मनमोहन सिंह सरकार के बच जाने की संभावना से पश्चिम बंगाल के मार्क्‍सवादियों को राहत मिली है। चुनाव जल्दी होते तो उनके हाथ-पांव फूल गए होते। माकपा के लिए पश्चिम बंगाल में पैरों तले की जमीन खिसकना साधारण बात नहीं है। शुरू से ही उसकी शक्ति तीन राज्यों तक सीमित रही है। त्रिपुरा और केरल के मुकाबले पश्चिम बंगाल बड़ा राज्य है और यहां उन्हें अधिक सांसद जिताने का मौका मिलता है।


माकपा के इस समय लोकसभा में तैंतालीस सांसद हैं, जिनमें से छब्बीस पश्चिम बंगाल से हैं, बारह केरल से, दो त्रिपुरा से, दो तमिलनाडु से और एक आंध्र प्रदेश से। अंतर्कलह के चलते केरल में भी पार्टी की हालत अच्छी नहीं है। इसलिए अगले चुनाव में उसे सबसे बड़ी हार झेलनी पड़ सकती है। पार्टी बनने के बाद 1967 में हुए आम चुनाव में उसके उन्नीस सांसद जीतकर आए थे। इस बार हो सकता है वह इतने सांसदों को भी न जिता सकें। बाकी वामपंथी दलों का भी भाग्य माकपा से जुड़ा रहता है। इसलिए अगर हवा बदली तो वामपंथियों की संख्या अगली संसद में आज से आधी भी नहीं रहेगी। इसलिए वामपंथी खेमें में यह सवाल उठना निश्चित है कि क्या परमाणु समझौते को टकराव का मुख्य मुद्दा बनाया जाना चाहिए था? इतना ही नहीं, जिस तरह यह मुद्दा उठाया गया उससे भी मार्क्‍सवादियों की नीयत पर सवाल उठे। दरअसल, वे भाजपा की तरह देश के नाभिकीय कार्यक्रम की स्वतंत्रता का मुद्दा तो उतनी विश्वसनीयता से उठा नहीं सकते थे, क्योंकि उन्होंने भले ही चीन की सामरिक-वैज्ञानिक उपलब्धियों पर बधाई संदेश भेजे हों, भारत में वे हमेशा नाभिकीय परीक्षणों की निंदा करते रहे।


इसके बाद अमेरिका के साथ समझौते के विदेश नीति पर पड़ने वाले प्रभाव को ही मुद्दा बनाया जा सकता था। सो उन्होंने भारत सरकार पर दबाव बनाया कि वह ईरान के नाभिकीय कार्यक्रम को समाप्त करवाने के लिए डाले जा रहे अमेरिकी दबाव का विरोध करे और अपनी स्वतंत्र विदेश नीति का परिचय देने के लिए गैस पाइपलाइन का समझौता करे। वे यह मानने के लिए तैयार नहीं हुए कि गैस पाइपलाइन ऊर्जा सुरक्षा का मुद्दा है, विदेश नीति का नहीं।


प्रकाश कारत की इस रणनीति पर सब वामपंथी सहमत रहे हों ऐसी बात नहीं है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के एबी वर्धन की शुरू से ही यह राय थी कि परमाणु समझौते का विरोध जरूर किया जाए, पर उसे मनमोहन सिंह की सरकार पलटने का मुख्य मुद्दा न बनाया जाए। वे काफी समय तक कहते रहे कि हम समर्थन वापस लेंगे, पर आवश्यक नहीं कि सरकार गिराएं।


इसी तरह अनेक दूसरे वामपंथी नेताओं ने कहा कि परमाणु समझौते का विरोध करते हुए सरकार की आर्थिक नीतियों को ही उससे टकराव का मुद्दा बनाया जाना चाहिए। इसकी आधी-अधूरी कोशिश भी हुई। पर प्रकाश करात की सारी ऊर्जा भारत-अमेरिकी नाभिकीय सहयोग समाप्त करवाने में लगी रही।


करात की राजनीतिक शिक्षा छात्र आंदोलन की देन है। वे 1970 में एडिनबरा विश्वविद्यालय की पढ़ाई पूरी करके भारत वापस लौटे थे और जेएनयू के छात्र संघ के अध्यक्ष रहे थे। 1974 से 1979 तक वे स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष रहे। आपातकाल में आठ दिन जेल में रहे। 1992 में पोलित ब्यूरो का सदस्य बनाए गए और 2005 में उन्हें पार्टी का महासचिव बना कर पार्टी की कमान सौंप दी गई। इसलिए उनकी समझ किताबी अधिक रही है। दूसरे दलों के नेताओं से जिस तरह का व्यक्तिगत संवाद सुरजीत बनाए रह सकते थे, करात के लिए संभव नहीं था। पर येचुरी की भूमिका कनिष्ठ ही है।
माकपा की इस अवस्था के लिए केवल प्रकाश करात को दोष देना ठीक नहीं होगा। सरकार बनाने, बदलने वाली जिस जोड़-तोड़ की राजनीति के जरिए करात अपनी पार्टी को सत्ता के शिखर तक पहुंचाने का सपना देख रहे थे, वह उन्हें उत्तराधिकार में ही मिली थी। माकपा के पिछले दोनों महासचिव उसी रास्ते पर चलते रहे थे। 1977 में कांग्रेस पहली बार केंद्र की सत्ता से हटी थी। उसी वर्ष पश्चिम बंगाल में मार्क्‍सवादियों को सत्ता हासिल हुई थी और उसी वर्ष ईएमएस नंबूदिरीपाद पार्टी के महासचिव बने थे। देश की उन अनिश्चित परिस्थितियों में ममार्क्‍सवादियों को लगा था कि लोकतांत्रिक दलों के बिखराव का फायदा उठा कर वे आगे बढ़ सकते हैं। जोड़-तोड़ के उत्साह में नंबूदिरीपाद ने यहां तक कहा था कि बड़ी शत्रु कांग्रेस को हराने के लिए छोटी शत्रु भाजपा से सहयोग किया जा सकता है।


माकपा ने 1992 में नंबूदिरीपाद से कमान लेकर हरकिशन सिंह सुरजीत को सौंप दी। सुरजीत का सारा जीवन राजनीतिक जोड़-तोड़ में बीता। उन्हें अपना राजनीतिक कौशल दिखाने का मौका 1996 में मिला। लोकसभा चुनाव में भाजपा के 161 सांसद जीते और कांग्रेस के 140। उनमें से कोई सरकार नहीं बना सकता था। प्रधानमंत्री की खोज में कुछ नेताओं का ध्यान ज्योति बसु की ओर गया। पोलित ब्यूरो में सुरजीत और ज्योति बसु को छोड़कर सबने इस प्रस्ताव का विरोध किया। इसी राजनीतिक दुविधा के बीच देवगौड़ा को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिल गया। कांग्रेस और माकपा ने उन्हें बाहर से समर्थन दिया। देवगौड़ा की सरकार ग्यारह महीने बाद समर्थन वापस लेकर कांग्रेस ने गिरा दी।


सुरजीत ने इंदर कुमार गुजराल की वैकल्पिक सरकार बनवाई, लेकिन वे भी ग्यारह महीने ही प्रधानमंत्री रहे। कांग्रेस ने उनसे समर्थन वापस लेकर आम चुनाव का रास्ता खोल दिया। इस राजनीतिक अनिश्चितता ने मार्क्‍सवादियों का हौसला बढ़ा दिया। ज्योति बसु ने बाद में उन्हें प्रधानमंत्री न बनने देने को पार्टी की ऐतिहासिक भूल बताया था। इस भूल को सुधारने के लिए 1998 की कलकत्ता कांग्रेस में माक्र्सवादियों ने अपना राजनीतिक कार्यक्रम संशोधित किया और यह गुंजाइश निकाल ली कि अवसर आने पर पार्टी केंद्र की सरकार में शामिल हो सकती है लेकिन संयुक्त मोर्चे की सरकारों की विफलता का फायदा कांग्रेस या ममार्क्‍सवादियों को मिलने के बजाय भाजपा को मिल गया और केंद्र में पहली बार भाजपा के नेतृत्व वाली अटल बिहारी वाजपेयी सरकार बनी।


यह दरअसल मार्क्‍सवादी नेतृत्व की नहीं, मार्क्‍सवादी सिध्दांत की कमजोरी है जिसे सभी मार्क्‍सवादी दियों ने तोतारटंत बना लिया है। उन्हें विश्व में अमेरिकी साम्राज्यवाद से लड़ना है और भारत में वर्ग शत्रु कांग्रेस और सांप्रदायिक भाजपा से। पर भारत में उन्हें इस सरलीकृत सिध्दांत को लागू करने की राजनीतिक परिस्थितियां नहीं मिलीं। तीन राज्यों की सत्ता में आकर पार्टी वैसे ही वर्ग-संघर्ष भूल बैठी।


पिछले तीन दशकों में पार्टी ने कोई ऐसा संघर्ष नहीं किया जिसे सर्वहारा का संघर्ष कहा जा सके। हालत यह है कि उनकी राजनीति की धुरी रहे मजदूर आंदोलन में आज भाजपा से जुड़ा मजदूर संगठन पहले स्थान पर है और मार्क्‍सवादियों से जुड़ा मजदूर संगठन चौथे स्थान पर, यानी सबसे नीचे। किसान आंदोलन में भी उनकी कोई खास जगह नहीं है। अपने प्रभाव वाले तीन राज्यों से बाहर उनका रहा-सहा असर भी सिमट गया है। भारतीय राजनीति की धुरी हिंदी प्रदेशों में उनकी कभी कोई हैसियत नहीं रही।


मार्क्‍सवादी पार्टी के दिग्भ्रम की हालत यह है कि पश्चिम बंगाल सरकार किसानों को बेदखल करके उद्योग खड़े करना चाहती है। उद्योग खड़े करने के लिए भी उसे चीन मूल का एक विवादास्पद इंडोनेशियाई सलीम घराना घराना ही दिखाई दिया, जिसका मालिक भाग कर अमेरिका में छुपा हुआ है।


दूसरी तरफ केरल के मार्क्‍सवादी किसानों को खेती में मशीनों का इस्तेमाल भी नहीं करने देते कि इससे खेत मजदूर बेकार हो जाएंगे। देश की राजनीति में उन्हें इजारेदार शक्तियों से बड़ी समस्या सांप्रदायिक शक्तियां लग रही हैं। जब मनमोहन सिंह सरकार की तथाकथित सुधारवादी नीतियां सामाजिक सुरक्षा और मजदूरों के हित के सभी प्रावधानों को उलट दे रही हैं, वे मनमोहन सिंह सरकार को अपनी पीठ लादे रहे हैं। इस सब के चलते पार्टी की जड़ता बढ़ती गई है। उसका कैडर सिकुड़ता रहा है। ऐसे में बेचारे करात के पास विकल्प ही क्या है? (साभार : जनसत्ता/12 जुलाई, 2008)

Saturday 12 July, 2008

'थैंक गॉड आइ ऍम नॉट ए मार्क्सिस्‍ट!'

लेखक- डॉ. रणजीत
समाचार है कि चीन के दक्षिणी प्रान्त गुआंगदोंग में बच्चों को गुलाम बनाकर सब्जियों की तरह बेचने का व्यापार इस कदर चल रहा है कि सरकार को उसके खिलाफ एक अभियान चलाना पड़ रहा है। यह खबर रूस या अन्य पूर्व समाजवादी किसी देश के बारे में होती तो समता को एक मानवीय मूल्य मानने वाले किसी व्यक्ति को आश्चर्य न होता। आखिर सभी पूंजीवादी, सामंतवादी समाजों में मानवाधिकारों के इस प्रकार के हनन होते ही रहते हैं। पर अपने आपको अब भी बाकायदा साम्यवादी दल कहने वाले एक सत्ताधारी वर्ग के शासन में यह हो रहा है, यह पढ़कर मन अवसादग्रस्त हो उठता है।

ऐसे में लगता यह है कि कोई भी दल हो, उसे लंबे समय तक अबाध शासन करने का अवसर मिले तो उसकी सारी सैध्दांतिक संवेदनशीलताएं समाप्त हो जाती हैं। दूसरे यह कि सोच-समझ कर और तय करके अपने देश को पूंजीवादी विकास के पथ पर ले चलने के ऐसे ही तो परिणाम होंगे? शहरी इलाके समृध्द होंगे, ग्रामीण गरीब होंगे, उद्योग विकसित होंगे, कृषि पिछड़ेगी, आंतरिक उपनिवेश स्थापित होंगे, अरबपतियों की संख्या बढ़ेगी; वेश्यावृति, बेरोजगारी, बंधुआ मजदूरी, बाल मजदूरी बढ़ेगी। जब आप पूंजीवादी विकास की राह पर चलेंगे तो पूंजीवाद के अभिशापों से अपने आप को कैसे बचाएंगे? क्या केवल तानाशाही शासन से? यह संभव नहीं है मित्रों!

मक्र्सवाद और साम्यवाद के नाम पर स्तालिन, चाउसेस्की और पोलपोट ने जो कुछ किया वह दूसरी ही कहानी है, जो बहुत कुछ इतिहास का अंग बन गई है; पर अपने आपको अब भी साम्यवादी कहने वाले चीन में तिब्बतियों के साथ जो किया जा रहा है और कड़े परिवार नियोजन के बाद भी जन्मे हुए बदकिस्मत गरीब बच्चों के साथ जो किया जा रहा है और हमारे अपने माक्र्सवादी सिंगुर और नन्दीग्राम में जो कर चुके हैं, उसे देखते हुए तो लगता है कि मार्क्‍स आज जिन्दा होते तो शर्मिंदा होकर एक बार फिर कहते - ईश्वर को धन्यवाद कि मैं मार्क्‍सवादी नहीं हूं! 'थैंक गॉड आइ ऍम नॉट ए मार्क्सिस्‍ट!' (साभार : सामयिक वार्ता/जुलाई 2008)

Friday 11 July, 2008

अमरनाथ श्राइन बोर्ड से जमीन वापस लेना धर्मनिरपेक्षता का मखौल

लेखक : डॉ.सूर्य प्रकाश अग्रवाल

प्रतिवर्ष दो माह के लिए देश व विदेश से लाखों श्रध्दालुओं के द्वारा कश्मीर में बर्फानी बाबा अमरनाथ के दर्शन किये जाते हैं। इस यात्रा का कश्मीर के लोगों के लिए आर्थिक व सामाजिक महत्व भी है। इस यात्रा से कुल मिला कर करोडों रुपयों का व्यापार होता है तथा लाखों स्थानीय नागरिकों को रोजगार उपलब्ध होता है। रोजगार के लिए कश्मीर मजदूर वर्ष भर इस यात्रा की प्रतिक्षा करते है। अमरनाथ बाबा के दर्शन करके लौटने वाले तीर्थयात्री भी अपने साथ मुसलमान मजदूरों व कर्मचारियों के द्वारा दिखायी गई धार्मिक सहिष्णुता व भाई चारें की याद लेकर जाते है। परन्तु मौसम की प्रतिकूलता के कारण तीर्थयात्रियों को होने वाली असुविधा को देखते हुए उन्हें ठहराने के लिए अस्थायी शिविर लगाने हेतु कश्मीर सरकार के द्वारा बालटाल क्षेत्र में मात्र 38.8 हैक्टेयर जमीन अमरनाथ श्राइन बोर्ड को अस्थायी रुप से हस्तांतरण की बात क्या चली कश्मीर के मुसलमानों की धार्मिक सहिष्णुता व भाईचारा मात्र दिखावटी ही साबित हुआ। कश्मीर के श्रीनगर व अन्य हिस्सों में हिसंक प्रदर्शन, हडताल व आंदोलनों की आग में कश्मीर झुलस गया एक दो दिन नहीं बल्कि एक सप्ताह से अधिक चलने वाले आंदोलन तभी वापस हुए जब अमरनाथ श्राईन बोर्ड ने जमीन सरकार को वापस ही कर दी। सत्तारुढ व अन्य राजनीतिक दल अपनी अपनी राजनीतिक रोटियां सैंकने लगे।

कश्मीर की सत्ता में भागीदार रही पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की अध्यक्षा महबूबा मुफ्ती ने जमीन हस्तांतरण को मुददा बना कर कांग्रेस की सरकार से समर्थन ही वापस ले लिया उधर जब कांग्रेस ने देश में इस मुददे पर धार्मिक धुव्रीकरण की आहट महसूस की तो उसने भी सरकार को बलि करने की तथा हिन्दुओं के मन में पैठ बनाने की सोची। अल्पमत होने पर जम्मू व कश्मीर के मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने अपना त्यागपत्र राज्यपाल एन एन वोहरा को सौप दिया। मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने इस मुददे को सुलझाने के 30 जून 2008 तक का समय मांगा था परन्तु पीडीपी ने राजनीतिक कारणों से प्रतिक्षा करनी उचित नहीं समझा तथा तीन दिन पूर्व ही सरकार से अपना समर्थन वापस लेकर अपने चरित्र का प्रदर्शन करते हुए कांग्रेस को अल्पमत में खडा कर दिया।

कश्मीर घाटी में अमरनाथ श्राइन बोर्ड को मात्र 38.8 हैक्टयर वन भूमि के हस्तांतरण का विरोध इस कदर होगा यह किसी ने सोचा भी नहीं था तथा इस विरोध के पीछे कश्मीर मुसलमानों को शेष भारत के हिन्दुओ के प्रति दुर्भावना ही परिलक्षित होती है तथा यह भी ज्ञात होता है कि वे स्‍वयं को भारत से कितना दूर महसूस करते है। जब केन्द्र सरकारों ने कश्मीर मुसलमानों के वोट बैंक को सुरक्षित करने के लिए वर्ष 1947 से आज तक 2 लाख करोड रुपये से अधिक व्यय करके अनगिनत सुविधाऐं दी है परन्तु वहां के मुसलमानों की संतुष्टी नहीं हो पायी है। इस प्रकरण से न केवल हिन्दुओं के प्रति बल्कि सम्पूर्ण भारत के प्रति उनकी कलुषित मानसिकता दृष्टिगोचर हो रही है। कश्मीर मुसलमानों के विरोध को देखते हुए कांग्रेस के दबाब में अमरनाथ श्राइन बोर्ड ने जमीन न लेने का विचार किया है व जमीन उसने लौटा दी। इस सारे प्रकरण से तो लगता है कि कश्मीर वक्फ की सम्पत्ति है और भारत का कोई अन्य धर्मावलम्बी हाथ भी नहीं लगा सकता है।

इस प्रकरण से कांग्रेस के सामने दोहरा संकट उत्पन्न हो गया है। क्योंकि इस आग की चिंगारी देश के कोने कोने में अवश्य फैलेगी तथा उससे धुआं भी जरुर उठेगा। देश भर में शांति व्यवस्था कायम रखना एक चुनौतिपूर्ण कार्य होगा। उधर कांग्रेस के सामने वोट बैंक की राजनीति का राजनीतिक खतरा भी उत्पन्न हो गया है। कांग्रेस का नेतृत्व यह भी समझ रहा था कि पूरे देश में इसकी कीमत चुकानी पडेगी क्योंकि देश मे हिन्दूवादी संगठनों व मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने जमीन वापस लेने के मुददे पर त्यौरियां चढा ली है।

इस प्रकरण से जम्मू व कश्मीर में भारत व विशेष कर हिन्दूओं के प्रति विश्वासघाती, राष्ट्रविरोधी व अवसरवादी राजनीति का अध्याय लिखा गया है। पीडीपी का विकृत चेहरा सामने आया। एक बार पहले भी जब महबूबा मुफ्ती का आतंकवादियों के द्वारा नाटकीय अपहरण किया गया तब भी उनकी राष्ट्रविरोधी मानसिकता जगजाहिर हुई थी परन्तु कांग्रेस ने उसी पीडीपी से सत्ता के मोह में गठबंधन करके कश्मीर में सरकार बना ली तो कांग्रेस भी कलंक के छींटों से नहीं बच सकेगी। भारत के लोकतंत्र में आई विकृति के रुप में पीडीपी ही क्या कोई भी राजनीतिक दल चंद वोटों के लालच में अलगाववादी व अवसरवादी राजनीति के किसी भी स्तर तक गिर सकता है। पीडीपी ने हद तो जब कर दी जब वर्तमान में चालू अमरनाथ यात्रा के तीर्थयात्रियों को ही संकट में डाल दिया तथा हजारों तीर्थयात्री स्वंय को असुरिक्षत महसूस करते हुए रास्तों पर यहां वहां कहीं भी शरण लिये हुए है क्योंकि अलगाववादियों के द्वारा सडकों पर तांडव जारी है। यह मानसिकता पाकिस्तान परस्त अलगाववादी नेताओं के समान है। हुर्रियत कांफ्रेंस में दोनों उदारवादी व गरम धडा दोनों ही एकाकार हो गये है। उसने यह प्रचार कर दिया कि अमरनाथ यात्रियों के लिए अस्थायी शिविरों में रहने की अस्थायी व्यवस्था से हिन्दूओं को घाटी में बसाने और कश्मीर मुसलमानों को अल्पसंख्यक बनाने की साजिश चल रही है। पीडीपी ने तो इस प्रकरण से काश्मीरियत की परिभाषा ही बदल दी अर्थात अब काश्मीरियत वह हैं जिसमें हिन्दुओं के लिए कहीं भी कोई स्थान नहीं - यहां तक कि प्रतीकात्मक रुप से भी नहीं।

जब पीडीपी की महबूबा मुफ्ती के पिताश्री मुफ्ती मुहम्मद सईद कश्मीर की सत्ता में थे तभी कश्मीर में अमरनाथ यात्रियों को राहत देने के लिए अस्थायी शिविर बनाने हेतु भूमि आंबटित करने की बात चली थी। अब कुछ समय पूर्व कश्मीर के मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड को बालटाल के नजदीक 38.8 हैक्टेयर भूमि आबंटित कर दी उनके इस फैसले में पीडीपी दल से सरकार मे उपमुख्यमंत्री बेग भी शामिल थे परन्तु अब वे अपनी सफाई देते हुए कह रहे हैं कि उन्हें धोखे में रखा गया।

अब इस प्रकरण से सम्पूर्ण भारत की समझ में आ गया कि आतंकवादियों ने कश्मीर पंडितों को कश्मीर से पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया तथा फिर वापस उन्हे कश्मीर में घुसने तक नहीं दिया है तथा राजनीतिक दल अपने वोट बैंक के लालच में पंडितों की पीडा को मूक दर्शक की तरह चुपचाप देख रहे है। कश्मीर का दुर्भाग्य है कि नेशनल कांफ्रेंस के शेख अब्दुल्ला से लेकर फारुख अब्दुल्ला व उमर अब्दुल्ला तक व पीडीपी के मुफ्ती मोहम्मद सईद व उनकी पुत्री महबूबा मुफ्ती कश्मीर को निजी जागीर मान कर राजनीति कर रहे है तथा बिना किसी संकोच व शर्म के कश्मीरीयत की राष्ट्र विरोधी व्याख्या कर रहे है। कश्मीर घाटी को आधार में रख कर राजनीति करने वाले राजनीतिक दल समग्र जम्मू कश्मीर के हितों की परवाह नहीं करते है तथा भारतीय संविधान की धज्जियां उठाने में पीछे नहीं रहते तथा स्वंय के वोट बैंक के निमार्ण के लिए व्याकुल रहते है। सम्पूर्ण राष्ट्र को एक सुत्र में बांधने वाले भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 से ही जम्मू कश्मीर को भी विशेष अधिकार मिले है। भूमि के इस प्रकरण से स्वतंत्रता के वर्ष 1947 से कांग्रेस की कश्मीर नीति की भी पोल खुल गई है तथा कांग्रेस की कश्मीर की नीति कतई असफल हो गई है।

एक तार्किक आधार पर भूमि के हस्तांतरण करने की सोच विकसित की गई थी। पहाडी मौसम की प्रतिकूलता से लाखों तीर्थ यात्रियों को भारी असुविधा का सामना करना पडता था। लगभग बरसात के दो महीनों में होने वाली अमरनाथ यात्रा में यात्रियों को होने वाली असुविधा देने के लिए अगर अस्थायी शिविर लगाने हेतु अमरनाथ श्राइन बोर्ड को अस्थायी रुप से भूमि आबंटित कर दी गई तो जम्मू कश्मीर को छोड कर शेष भारत का मुसलमान भूमि हस्तांतरण का यह तार्किक आधार समझता है। हुर्रियत कांफ्रेस कश्मीर के इस्लामिक रुप को हर हालत में बनाये रखना चाहती है। चीन ने तिब्बत व झिंजेंग से भारी संख्या में पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया था जिससे तिब्बत का आंदोलन कमजोर पड जाये। पाकिस्तान भी जम्मू कश्मीर के उत्तारी क्षेत्र में ऐसी ही स्थिति चाहता है कि उस क्षेत्र में हिन्दू व गैर मुस्लिम लोग नहीं रहें। मिजोरम, असम, अरुणाचल इत्यादि प्रदेशों में भी कभी कभी क्षेत्रवाद की आंधी चलती है।

परन्तु इस प्रकरण में तो भोले भाले शिव भक्त तीर्थयात्रा करने के लिए अमरनाथ बर्फानी बाबा की गुफा तक जाते है फिर दो चार दिन में वापस लौट आते है वे कश्मीर मे बसने के लिए नहीं जाते है। उनकी इस यात्रा से काश्मीरियों को आर्थिक लाभ भी होता है। उनसे व्यापार उद्योग धंधे चलते है तथा युवाओं व गरीबों को रोजगार मिलता है। परन्तु राजनीतिक लोगों को यह भी बर्दाश्त नहीं होता। वर्ष 2002 से शुरु हुआ पीडीपी की शुध्द वोट बैंक की राजनीति राष्ट्र विरोधी है तथा क्षेत्रवाद से कहीं आगे पीडीपी की राजनीति धार्मिक पुर्वाग्रहों से ग्रसित उसके हुर्रियत समर्थकों के लिए हो रही है। मुफ्ती मोहम्मद सईद केन्द्र सरकार में पूर्व गृहमंत्री जैसा महत्वपूर्ण पद सभाल चुके है। उनकी पार्टी पीडीपी की सोच संकीर्णता से ऊपर होनी चाहिए थी परन्तु ऐसा नहीं हुआ तथा वर्ष 2002 के चुनाव से शुरु हुआ उनका राजनीतिक सफर अब हिन्दुओं को गाली देने पर उतर आया कि हिन्दूओं तुम अमरनाथ की गुफा से दूर रहो तुम्हें यहां आकर मौसमी तकलीफें झेलनी पडती है तो तुम यहां क्यों आते हो? तुम्हें यहां नहीं आना चाहिए। देश में हज यात्रियों को सरकारी सुविधाओं के निरन्तर बढते जाने से ही प्रतिवर्ष हज यात्रियों की संख्या बढती ही जा रही है। इन सुविधाओं पर सरकार का करोडों रुपया व्यय होता है। परन्तु हिन्दुओं को उनके देश में ही बैगाना समझने का दुस्साहस चंद राष्ट्र विरोधी मानसिकता वाले राजनीतिक दल करते है। दिल्ली मेरठ राष्ट्रीय राजमार्ग पर हज यात्रियों को सुविधा देने के लिए हज हाउस बनाया गया है। क्या पीडीपी व हुर्रियत समर्थक उस हज हाउस को तोड सकने की हिम्मत रखते है? केन्द्र सरकार को इस भूमि हस्तांतरण प्रकरण से सबक लेना चाहिए तथा अपनी कश्मीर नीति में कठोर से कठोर निर्णय लेते हुए सविंधान के अनुच्छेद 370 को तुरंत समाप्त कर जम्मू व कश्मीर को जल्दी से जल्दी राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल करना चाहिए वरना तो हिन्दू ही देश शरणार्थी बन कर इधर उधर भटकते रहेगें तथा कांग्रेस तुष्टीकरण की राजनीति से देश एक बार तो धार्मिक आधार पर वर्ष 1947 में बंटा ही था दूसरी बार भी ज्ल्दी बंट जायेगा।

अमरनाथ श्राइन बोर्ड ने बालटाल में उसे आंवटित 40 हैक्टेयर भूमि कश्मीर की गैर धार्मिक सहिष्णुता की स्थिति को देखते हुए राज्य सरकार को वापस कर दी। राज्य सरकार ने भी बोर्ड के अधिकारों की कतर ब्यौत करते हुए बोर्ड को मात्र बर्फानी बाबा अमरनाथ की गुफा में पूजा पाठ तक ही सीमित कर दिया। तीर्थयात्रियों को समस्त सुविधाएं राज्य सरकार द्वारा उपलब्ध कराने की बात कही गई है। इससे कश्मीर में कट्टरवादी मुसलमानों सहित पीडीपी के तेबर ढीले पड जाने से कश्मीर में शांति स्थापित होने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। परन्तु इस प्रकरण से सम्पूर्ण भारत में कई प्रश्न जरुर उत्पन्न हो गये है। देश के प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के विचारों को भी नेपथ्य में नहीं रखा जा सकता है। भाजपा के उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकबी के अनुसार अमरनाथ यात्रा मामले में अलगाववादियों के समाने किसी भी तरह की घुटना टेक नीति से गम्भीर राष्ट्रव्यापी परिणाम भुगतने पड सकते है। यह केवल जम्मू व कश्मीर से जुडा हुआ मुद्दा नहीं था अपितु पूरे देश के करोडों लोगों की श्रध्दा व आस्था की सीधा विषय है। जरुरत पडने पर अलगाववादियों व आतंकवादियों की राष्ट्र विरोधी हरकतों को कुचलने के लिए सैनिक कार्यवाही से भी परहेज नहीं करना चाहिए। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इस फैसले के विरुध्द राष्ट्रव्यापी आंदोलन करने की बात कही है। जबकि कांग्रेस ने सांप भी मर जाये व लाठी भी न टूटे की नीति पर चलते हुए पीडीपी (लगता है हुर्रियत का ही बदला हुआ नाम है) की राष्ट्रविरोधी मांग के सामने घुटने टेकते हुए एक तरह से अलगाववादियों व आतंकवादियों के सम्मुख समर्पण ही कर दिया है। इस मुददे पर कांग्रेस व देश के प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के अलावा देश के अन्य राजनीति दलों की चुप्पी भी घातक है। ऐसा लगता है इन दलों की मानसिकता वोट बैंक की राजनीति करते हुए देश को अलगाववादियों व आतंकवादियों के सम्मुख थाली में परोसना भर है। (नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)

Saturday 5 July, 2008

हिन्दी में वामपन्थ का अतिचार : अशोक वाजपेयी


देखिए, मेरे तो बहुत सारे मित्र वामपन्थी हैं। इसका भी कभी इतिहास लिखा जाना चाहिए कि ऐसी संस्थाओं की कितनी मदद मैंने की है। लेकिन उसकी बहुत सारी मौलिक स्थापनाओं से मेरी असहमति हैं। खासकर हिन्दी में जो वामपन्थ है, उसने जो अतिचार कर रखा है, उससे भी मेरी घोर असहमति है। तमाम लेखक, कृतियां - उनके प्रति अनुनायी युवा लेखक, प्राय: अनभिज्ञ है। बिना जाने-बिना पढ़े सबको खारिज करते हैं। वह संगठन है, बाकी विचारधाराएं संगठन नहीं हैं, वे विचार है-उनके संगठन नहीं। अलग-अलग विचार लोगों के हैं लेकिन वामपन्थी एक या दो संगठन है।
संगठन के बिना इनका विचार चलता नहीं। तो संगठन बने। इन संगठनों का काम सुबह से शाम तक यही है कि किसको गिराना है, किसको उठाना है।
दूसरा, इन्होंने पूरे सोवियत संघ को, पूरी कम्युनिस्ट व्यवस्था के तहत ध्वस्त होने पर कभी गंभीरता से विचार नहीं किया। उसका कोई प्रमाण नहीं है। तीसरा, यह मानते थे कि मार्क्स ने यह कहा था, अगर आप मैटिरियल फैक्ट्स बदल दें तो चेतना बदल जाएगी। सत्तर वर्ष आपने सोवियत संघ में राज किया। मनुष्य की चेतना नहीं बदली। बल्कि उसी चेतना ने आपको नष्ट कर दिया, ध्वस्त कर दिया। ये सब गहरे मामले हैं। इनको लेकर आपके मन में कुछ गंभीरता होनी चाहिए।
सच तो यह हैं कि किसी वैचारिक शत्रुता के बिना इनका वाम काम ही नहीं कर सकता। यह उसकी सबसे बड़ी दुर्बलता है। उसको शत्रु चाहिए। पहले अज्ञेय थे फिर निर्मल वर्मा व विद्यानिवास मिश्र हैं। वे नहीं होंगे तो कोई और तैयार हो जाएंगे।
बाकी उनका यह आग्रह कि सामाजिक संघर्ष में साहित्य की भूमिका है, इस पर मुझे कोई एतराज नहीं है, किन्तु उसका मूल्य सिर्फ उसकी तथाकथित सामाजिक उपयोगिता में है-इसको मैं मानने को तैयार नहीं हूं। क्योंकि समाज अपने आप में एक अमूर्त धारणा है-आखिर समाज क्या है, क्या मतलब उससे? वह एक अवधारणा है मेरे हिसाब से। हिन्दी के बहुत सारे वामपंथी अपढ़ वामपंथी भी हैं जो कि विलक्षण बात है। मूल ग्रन्थ पढ़ा नहीं है और जो मार्क्सवादी विचार ने ही अपना विस्तार किया है, जब सोवियत संघ था, तब और उसके बाद भी -इससे इनका कोई लेना-देना है।

(साभार : पाव भर जीरे में ब्रह्मभोज-ओम निश्चल से बातचीत)

Wednesday 2 July, 2008

मुस्लिम वोट की खातिर कहां तक गिरोगे

जम्मू-कश्मीर में जो कुछ हो रहा है उसने देशवासियों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी है।

जरा नीचे लिखे बयानों पर गौर फरमाएं:

हुर्रियत कांफ्रेस के कथित उदारवादी अध्यक्ष मीरवायज उमर फारुख ने कहा है कि 'श्राइन बोर्ड को जमीन देकर भारत सरकार कश्मीर में हिन्दू कालोनी बनाकर जनसंख्या अनुपात को बदलना चाहती है।

यासीन मलिक ने चेतावनी दी कि यदि भूमि हस्तांतरण आदेश वापस नहीं लिया गया तो वह आमरण अनशन शुरू करेंगे।

अलगाववादी नेता अली शाह गीलानी का कहना है कि बोर्ड को ज़मीन देना ग़ैर-कश्मीरी हिंदुओं को घाटी में बसाने की एक साज़िश है ताकि मुस्लिम समुदाय घाटी में अल्पसंख्यक हो जाए।

मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनकी पुत्री पीडीपी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती के अनुसार अमरनाथ यात्रा से कश्मीर में प्रदूषण फैलता है।

पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ने कहा कि उनकी हुकूमत आई तो बोर्ड को दी जाने वाली जमीन वापस ले ली जाएगी।

राष्ट्रविरोधी ताकतें हिन्दुओं के मन में भय और दहशत का माहौल कायम कर रहे हैं। वे अमरनाथ यात्रियों पर पत्थर बरसा रहे है। 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे लगा रहे हैं। प्रदर्शनकारियों ने श्रीनगर के लाल चौक में पाकिस्तान का झंडा फहराया, जिन बोर्डों व होर्डिंग पर 'भारत या इंडिया' लिखा था उन्हें तहस-नहस कर दिया।

गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर स्थित प्रसिध्द तीर्थस्थल श्री अमरनाथ मंदिर को 40 हेक्टेयर ज़मीन हस्तांतरित करने पर विवाद गहरा रहा है। राज्य सरकार ने कैबिनेट बैठक करके यह जमीन श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी, ताकि वह यात्रियों के लिए मूलभूत सुविधाओं की स्थायी व्यवस्था कर सके। इसके विरोध में अलगाववादी संगठनों द्वारा कश्मीर में हिंसक प्रदर्शनों का सिलसिला जारी है। अंतत: अलगाववादियों की धमकी के आगे गुलाब नबी सरकार ने घुटने टेक दिए। गौरतलब है कि पीडीपी के समर्थन वापस ले लेने से राज्य की कांग्रेस-नीत सरकार भी अल्पमत में आ गई है। हालांकि आवंटित भूमि को राज्य सरकार ने वापस ले लिया है। बोर्ड को दिए गए भूमि आवंटन को रद्द किया जाना अलगाववादियों के सामने सरकार का समर्पण है।

श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने के मामले का राजनीतिकरण करने और अमरनाथ यात्रा को भंग करने के उद्देश्य से कश्मीर घाटी में हिंसा फैलाने के विरोध में जम्मू में विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय जनता पार्टी, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद समेत अनेक राष्ट्रवादी संगठनों के आह्वान पर जम्मू बंद का सफल आयोजन हुआ, जिसमें बढ़-चढ़कर लोगों ने हिस्सा लिया।

उल्लेखनीय है कि मुस्लिम वोटों के खिसकने के चक्कर में जम्मू-कश्मीर के प्रमुख राजनीतिक दल नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी भी ज़मीन के हस्तांतरण का विरोध कर रही है, जबकि भारतीय जनता पार्टी इस भूमि आवंटन के पक्ष में है। प्रारंभ में कांग्रेस भी भूमि आवंटन के पक्ष में थी लेकिन अब वह भी राज्य में तुष्टिकरण की राजनीति को हवा देने में जुट गई है। सवाल यह है कि आखिर वोट के लिए तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल कहां तक नीचे गिरेंगे? वोट के लिए देश को दांव पर लगाना उचित है?

सुविदित है कि पवित्र अमरनाथ गुफा दर्शन के लिए हर साल हज़ारों श्रध्दालु पहुँचते हैं। अलगाववादी नेता यह सवाल उठा रहे है कि अमरनाथ यात्रा में इतने लोगों को क्यों शरीक होना चाहिए। अलगाववादियों को यह समझ लेना चाहिए कि पूरा देश एक है और किसी को कहीं भी आने-जाने का अधिकार है। श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन दिए जाने के मुद्दे पर अलगाववादियों द्वारा कश्मीर घाटी में जो प्रदर्शन आयोजित किए जा रहे है, उसके पीछे पाकपरस्त ताकतों का हाथ है। अजीब विडंबना है कि जब सरकार हज यात्रा के लिए छूट देती है तो अमरनाथ यात्रियों को सुविधा देने पर बवाल क्यो? पूरे भारत में हज यात्रियों के लिए बने स्थाई केन्द्रों से प्रदूषण नहीं फैलता, परंतु अमरनाथ यात्रियों के लिए की जा रही व्यवस्था से प्रदूषण फैलने का आरोप लगाना निहायत बेवकूफी भरा है। श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड के पक्ष में जमीन हस्तांतरण के मुद्दे पर अलगाववादियों ने जिस तरह का राष्ट्रविरोधी रवैया अपनाया है, यदि इसके विरूध्द तत्काल सख्त कदम नहीं उठाए गए तो तो इसके भयंकर परिणाम हो सकते है।